मग्घे ने पिछले कुछ बरसों से सैकड़ों बार प्रधान के कहने पर बैंक से पैसा उठाया था। हर बार वह घर आकर घर के मिट्टी की दीवार पर एक खड़ी लाइन जोड़ देता था जो पैसा बतौर हिसाब उसे प्रधान से पाना था। हालांकि प्रधान ने अभी तक तो एक रुपया भी नहीं दिया था मगर मिट्टी की दीवारों पर लाल रंग के सैकड़ों खड़ी लाइनें मग्घे और मीरावती को खासी तसल्ली देतीं थीं कि प्रधान के पास यह रकम जमा है और वह इसे देगा जरूर। मग्घे तड़प-तड़प कर टी.बी. की बीमारी से मर गया। मगर प्रधान अब-तब करता रहा। मग्घे के बच्चे प्रधान के आगे पीछे मड़राते रहे, मीरावती भी बार-बार उस दर पर गई, मगर पैसे न मिलेआम तौर पर डांट-फटकार से बात करने वाला प्रधान, मीरावती से विनम्रता से पेश आता और उसे आश्वासन देता रहा। मग्घे ने मरते-मरते अपने बड़े भाई दांते और छोटे भाई राम समुझ से वचन ले लिया था कि वे मीरावती और उसके चार अबोध बच्चों को भूखा नहीं मरने देंगे।
मग्घे का बाप त्रिलोकी भी मृत्यु की कगार पर था। उसकी माँ पहले ही काल कवलित होचकी थी। मग्घे ने अपने भाइयों को भी प्रधान के कर्जे के बाबत बताया था। मगर मग्घे के मरते ही नजारा बदल गया। जो भाई-बन्धु मीरावती और उसके बच्चों को भूखों न मरने देने को वचनबद्ध थे, वही अब मीरावती को घर से निकाल देने पर आमादा थे। क्योंकि मग्घे के पास तीन बीघे की खेती थी। गांव का प्रधान तटस्थ थाउसे दीवार पर लिखी लाइनों के कर्जे का तकादा आजिज किए हुए था। मीरावती ने फिर प्रधान की शरण ली, इस बार मामला कर्जे की उगाही का न था बल्कि शरण का था। वह अपनी जड़ों से उखाड़ी जा रही थी।
असहाय स्त्री कहां जाती इस बेरहम संसार में। माँ-बाप पहले ही गुजर चुके थे। सगे चचेरे भाइयों ने किसी तरह चंदा जोड़कर उसका विवाह किया था। महराजगंज तराई का उसका पैतृक गांव बाढ़ में बह गया था और भाई पंजाब में कहीं मेहनत मजूरी करके गुजर-बसर कर रहा था। विगत चार छ: वर्षों में भाई बहन का किसी तरह का संपर्क नहीं हुआ था। अब वह हिन्दू विधवा थी जिसे अवध क्षेत्र में संसार का सबसे तुच्छ प्राणी माना गया था। अब वह चार अबोध बच्चों को लेकर जाए तो कहां जाए। लेकिन मीरावती ने जीते जी पति का घर छोड़ने से इनकार कर दिया।